अनाशवा ध्यान की एक अनूठी विधि है. यह आनापानसति योग एवं शवासन के मिलन से बनी है. आनापानसति योग का अर्थ है ध्यानपूर्ण साँस लेना और शवासन एक प्रकार की योग मुद्रा है जिसमें व्यक्ति शव बनने का अनुभव करता है. अनाशवा का शाब्दिक अर्थ है: जिसका नाश न हो. अनाशवा क्रिया करने से उस तत्व को खोजा जा सकता है जो अविनाशी है.
अनाशवा पर प्रयोग करने के पहले यह आवश्यक है कि आप आनापानसति योग से भलीभाँति परिचित हों. दूसरी बात, आपको हठयोग में भी अच्छा पारंगत होना आवश्यक है क्योंकि बिना हठयोग किए आप शवासन करेंगे, तो सो जाएँगे.
आइए पहले आनापानसति योग और हठयोग को ध्यान से समझ लें, और हठयोग के बाद शवासन में कैसे उतरते हैं इस पर चर्चा कर लें.
आनापानसति योग: यह विधि बुद्ध द्वारा प्रयोग की जाती थी. बुद्ध के पहले यह विधि शिव के विज्ञान भैरव तंत्र में उपस्थित थी. विज्ञान भैरव तंत्र में ध्यान की 112 विधियों का वर्णन किया गया है जिसमें साँस की विधि प्रथम है. मैंने स्वयं यह विधि मास्टर ओशो से सीखी थी.
इस विधि में हमें साँसों को देखना होता है. देखने से अर्थ है महसूस करना.साँस जब अंदर आ रही होती है, धीरे...धीरे...धीरे, तो इसको देखिए. अंदर आकर वो एक बिन्दु पर रूकती है क्योंकि उसे बाहर की यात्रा शुरू करनी होती है, तो वह एक क्षण के लिये रूकती है और बाहर की ओर यात्रा शुरू करती है. फिर धीरे...धीरे...धीरे बाहर निकलती है, और फिर एक क्षण के लिये रुकती है वापस अपनी यात्रा आरंभ करने के लिए. ये जो विश्राम के क्षण हैं, जहाँ साँस रुकती है, इन पर ध्यान दें. आप पाएँगे कि इन क्षणों में कोई विचार नहीं होता क्योंकि जब आप साँस नहीं ले रहे होते हैं तो मन रुक जाता है. और मन का रुकना, विचारशून्य होना ही ध्यान है.
एक बात समझें: साँस महसूस करना है बस, इसके अहसास के संबंध में कुछ सोचना नहीं है. यह अपने अंदर बार-बार बात नहीं लानी है कि, "अब साँस अंदर आ रही है." "अब बाहर जा रही है."
सबसे ज़रूरी बात यह है कि अंतराल के वे क्षण जहाँ मन रुक जाता है उन्हें स्वाभाविक रूप से आने दें, उन तक पहुँचने की जल्दी न करें, न उन्हें बलपूर्वक पैदा करें. आमतौर पर ध्यानी यही सोचते रहते हैं कि, "अब वो क्षण आने वाला है." "आ रहा है." इस जल्दबाज़ी में वे सब चूक जाते हैं. यदि पूरे समय आप यही सोचते रहे कि, “वो क्षण कब आएगा?” तो वह आकर चला भी जाएगा, और आप सोचते रह जाएँगे. तो, जब वो क्षण आए, उस क्षण में रुकें; जब फिर साँस शुरू हो, तो साँस के साथ फिर यात्रा करें. गति में रहें, यात्रा करें. यात्रा करते-करते फिर वो क्षण आये, फिर रुक जाएँ.
यह प्राचीन विधि रूपांतरण का महामंत्र है. यह सर्वाधिक प्रभावी विधियों में से एक इसलिए भी है क्योंकि साँस ही एक ऐसी चीज़ है जो हम हमेशा ही लेते रहते हैं. तो कहीं भी, सोते समय भी, इसे किया जा सकता है.
दूसरी ज़रूरी बात, आनापानसति योग प्राणायाम नहीं है यानि आपको साँसों को नियंत्रित नहीं करना है. न गहरा करना है, न उथला करना है, न रोकना है, न छोड़ना है. बस सहज रूप से उन्हें आते-जाते महसूस करना है.
यह ध्यान करते समय भी विचार आएँगे ही क्योंकि मन की पुरानी आदत है सोचना. तो विचारों के आने पर परेशान बिल्कुल न हों. जब विचारों में उलझ जाएँ और साँसों से ध्यान हट जाए, तो वापस चुपचाप उन्हें साँसों पर वापस लाएँ. यह सोचने में, पश्चाताप करने में समय व्यर्थ न करें कि, "देखो मैंने कितना समय सोचने में बिता दिया और साँस को देखना भूल गया." धीरे-धीरे अभ्यास से विचार भी आने कम हो जाएँगे.
शवासन: शवासन सुनने में जितना आसान लगता है उतना है नहीं. शवासन का अर्थ केवल यह नहीं है कि लेट गए और आराम करने लगे. यह आसन परम विश्राम की एक विधि है, ऐसा विश्राम जो शव में दिखता है: निश्चिंत और स्थिर.
इसके अभ्यास के लिए अपनी कल्पना शक्ति से यह भाव पैदा किया जाता है कि आप मर चुके हैं. आमतौर पर, लोग बेचैन रहते हैं. हिलना-डुलना, यहाँ खुजाना, वहाँ खुजाना, करवट बदलना, मुद्रा बदलना. इसका कारण है हमारे शरीर में भरी हुई बेचैनी. इस बेचैनी को शांत करने के लिए ही हठ योग का अभ्यास बहुत ज़रूरी है ताकि शरीर में एक संतुलन और स्थिरता आए. हठयोग करने से शरीर लचीला एवं जागरूक भी होगा. शरीर के हर एक तंतु, हर एक रेशे में ऊर्जा प्रवाहित होगी, जिससे आप चेतन होंगे, और शवासन के समय नींद नहीं आएगी. बिना हठयोग किए शवासन करने से आप थका हुआ महसूस करेंगे, और जल्द ही सो जाएँगे.
आनापानसति योग और शवासन को समझने के बाद अब हम अनाशवा में प्रवेश करते हैं. शवासन में लेट जाएँ और शरीर को इतना ढीला छोड़ें कि आपकी साँस बिल्कुल धीमी हो जाए. शरीर जितना विश्राम में होगा, साँस उतनी गहरी होती चली जाएगी, बिना प्रयास के. याद रखिए: साँसों पर नियंत्रण न करें, बल्कि उन्हें सहज रूप से बहने दें.
धीरे-धीरे आपकी साँस इतनी गहरी होती जाएगी कि आप उसे नाभि के पास महसूस करेंगे. ऐसा होने पर आपको यह महसूस होने लगेगा कि दरअसल साँस आप नाक से नहीं ले रहे हैं, बल्कि जो कुछ हो रहा है नाभि के आसपास हो रहा है. नाभि से ही साँस उठ रही है, वहीं लौट रही है.
मास्टर ओशो ने बताया है कि हमारा मुख्य आध्यात्मिक केंद्र नाभि ही है. जिस प्रकार गर्भाशय में बच्चा अपनी माँ से नाभि के द्वारा पोषण पाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक रूप से हर व्यक्ति अस्तित्व से नाभिकेंद्र से ही जुड़ा होता है. जन्म के बाद बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है उसकी ऊर्जा चारों तरफ़ फैलना शुरू होती है. जिस व्यक्ति/वस्तु से प्रेम करता है, घृणा करता है वहाँ उसकी ऊर्जा ठहरने लगती है. ऐसे, उसकी ऊर्जा बाहर की ओर बिखरने लगती है.
लेकिन मृत्य के समय वह सारी ऊर्जा वापस अपने स्त्रोत, अपने उद्गम में लौटने लगती है. इस पूरी घटना को हम अनाशवा के द्वारा महसूस कर सकते हैं. अनाशवा करते समय एक प्रबल भाव अपने अंदर पैदा करें कि आपकी ऊर्जा चारों ओर से वापस लौट रही है. कुछ समय के अभ्यास के बाद, नाभि का केंद्र ही आपके जीवन का केंद्र बनने लगेगा. आप जहाँ भी होंगे, पूरे समय नाभि के आसपास अपने आपको महसूस करेंगे. जबकि आमतौर पर हम अपने आपको मस्तिष्क के आसपास ही महसूस करते हैं.
यह एक प्रकार से सचेतन मृत्यु को अनुभव करना है. चूँकि मृत्यु शब्द हमारे लिए इतना नकारात्मक है, हम इस प्रयोग से वैसे ही घबरा सकते हैं. लेकिन थोड़ा गहरे में उतरने पर आप पाएँगे कि जब आप इस मृत्यु को अनुभव करने लगते हैं, तो अपने अंदर ऐसे तत्व को जानने लगते हैं जो कि इस शरीर से अलग है, पृथक है. उसी तत्व को कृष्ण ने साक्षी कहा है. आप अपने अंदर शरीर के पार कुछ महसूस कर पाते हैं. इस अनुभव से आपके अंदर से मृत्यु का भय मिट जाता है.
सबसे बड़ी बात, विचारशून्यता एक नए रूप में उभर कर हमारे सामने आती है. जब हम केवल आनापानसति योग करते हैं और कुछ क्षण के लिए जो विचार रुकते हैं, तो हमारा विचाररहित होने का अनुभव सिर के आसपास ही होता है, यानि हम विचारों को पहले सिर में महसूस करते हैं, और फिर उनकी अनुपस्थिति को भी सिर में ही महसूस करते हैं.
लेकिन नाभिकेंद्र में जो विचारशून्यता होती है, वह बिल्कुल ही अनोखी, अद्भुत होती है. दरअसल, नाभिकेंद्र पर विचारशून्यता विचारों की अनुपस्थिति मात्र नहीं होती. बल्कि ऐसा लगता है कि वहाँ कभी विचार था ही नहीं. विचारों से एकदम अछूता जगत! विशुद्ध शून्य! फिर एक नए ही जगत का उद्घाटन हमारे जीवन में होता है. इस जगत के बारे में कुछ भी कहना असंभव है क्योंकि इस जगत में सब कुछ विरोधाभासी है. यह जगत है भी और नहीं भी. यहाँ आप होते भी हैं और नहीं भी होते. आनंद की गहनतम अनुभूति है यहाँ और यह आनंद के पार भी है. यहाँ जीवन और मृत्यु एक ही हैं.